Sunday 21 December 2014

 अनमोल संग्रह 

1) बरसने दो बूंदों को
बरसना उनका काम है
वो भीगा रही है उन्हें
जिसे वो अपना बनाना चाहती है.

2) बारिश में भीग गए कई ख़त
 मगर जवाब हमेशा सूखा ही मिला

3)आहिस्ता से रखो कांच जैसे नाज़ुक ख़्वाबों को
 कहीं ये टूट कर बिखर ना जाए.

4) तन्हाई की इन इमारतों में
उदासी के कमरे है कई
यहां सीढ़िया बेबस है तो
शहर बेजुबां सा है

5)इस तन्हा शहर में बेबसी की कई इमारतें है
जिससे भी पूछो पता वो नज़रे फेर लेती है.

6) अभी सोया हुआ था ये शहर
कि, तुम्हारी अहाटों ने उठा दिया

7) चाहत के रास्ते बताएंगे
 दिल का आशियाना कहां है.

8) मुझ पर इल्ज़ाम लगा
ख़ुद को बेदाग़ कर दिया

Saturday 28 June 2014

 मैं, शायर नहीं

मैं, शायर नहीं
क्योंकि शायर तो लोगों के साथ रहकर भी
तन्हा रहता है
मैं, उसकी क़लम की स्याही की एक बूंद हूं,
जिसके निशां के धब्बे
जिंदगी के पन्नों पर है
ख़ूब सिखाया तेरे धोखे ने
फिर भी क़लम ख़ामोश रही मेरी
सड़क किनारे चलता रहा
किसी हादसे से बचकर
बेख़बर थी वो
मुझसे बिछड़ कर
मिली वो एक दिन
जैसे अनजान सी थी
फिर भी क़लम ख़ामोश रही मेरी
मेरी क़िताबे मेरा बैग सब महफूज़ थे
मगर बेबस था स्कूल मेरा
कभी जो पढ़ती थी बच्चियां वहां
आज घूर कर देखती है वो
किससे बयां करुं
उनकी मासूम आंखों की नज़रों को
फिर भी क़लम ख़ामोश रही मेरी
कई झूठ बोले
मगर, खुद से कभी सच ना कहा
शहर के साथ नाम भी बदलता रहा
सुबह के उजाले में
बीते अंधेरे के ग़मों को तलाशता रहा
फिर भी क़लम मेरी ख़मोश रहती
छत से तंग गलियों बड़ी बेसब्री से देखता
ख़ुशी से बादल रोते
साथ में रोते हम भी
इन पलों को संजो कर रखता कैसे
शब्दों को आकृति देता कैसे
फिर भी क़लम मेरी ख़मोश रहती
दौलत थी पर सहारा ना था
घर बड़ा बहुत था मगर, खाली था
समंदर नजदीक था
लहरे दूर थी.
किसे अपना राज़दार बनाता
जिंदगी में कहने के लिए बहुत कुछ था
एक डायरी ही थी
जिस पर कुछ लिखता
फिर भी क़लम मेरी ख़मोश रहती












Saturday 24 May 2014

ना जाने क्यों


ना जाने क्यों आज-कल खोया-खोया सा रहता हूं,
खुद से खफा रहता हूं,
बिना हवा के चलने से पेड़ों को हिलते हुए देखता हूं,
बिन बारिश के बादलों में इंद्रधनुष को देखता हूं,
तो कभी, लहरों की बूंदों को गिनने की कोशिश करता हूं,
ना जाने क्यों आज-कल खोया-खोया सा रहता हूं,
कोई पूछ ले सवाल,
तो जवाब देने से डरता हूं,
हवा के रुख से बातें करता हूं,
कभी पतंग की डोर को,
धागे में पिरोता हूं,
ना जाने क्यों आज-कल खोया-खोया सा रहता हूं,
तमाम पहेलियां हैं चारों ओर,
फिर भी उन्हें सुलझाने से डरता हूं,
सुर-ताल की चिंता किए बिना,
संगीत को सुनता हूं,
अजनबियों के साथ दोस्ती करता हूं,
मगर, बातें करने से कतराता हूं,
बदलते वक्त के साथ तालमेल बिठाता हूं,
धूप में भी छांव की तलाश करता हूं,
ना जाने क्यों आज-कल खोया-खोया सा रहता हूं,,
पलके खामोश सी रहती है,
तो सांसें बैचेन,
दिल बेकरार सा रहता है,
तो उम्मीदें धुंधली लगती है,
जो मेरे पास है,
उसके बारे में सोच-सोच कर परेशां सा रहता हूं,
ना जाने क्यों आज-कल खोया-खोया सा रहता हूं

Saturday 3 August 2013

तेरे लिए 

मै,तेरे लिए आया,
इस जिंदगी में,
चाहकर कर भी तेरा ना हो सका,
मुरझे हुए फूलों की तरह मेरी सवेंदनाएं भी मुरझा गई,
खिली हुई कलियों की खुशियों जैसे
प्यार का अहसास होने लगा था,
कुछ सपने थे,
जो पतझड़ की तरह हो गए,
बिन उसके एक पल भी एक नागवार लगने लगा
राहें बनाने से पहले ही
उन राहों पर चलना छोड़ दिया,
पास तो था,
मगर मीलों की दूरी तय करके
पास आने की कोशिश करता,
अतीत को भूलने की कोशिश में
आजसे नफरत करने लगा
बुझे हुए मन से
दिल में एक तीली जलाने लगा
उसके बगैर हर आसान रास्ता,
मुश्किलों में तब्दील हो जाता.
वक्त के बदलाव ने
मुझमें परिवर्तन ला दिया
आज वो मेरे साथ हैं,
जिसके लिए इस जिदंगी में आया था.


रवि कुमार छवि
भारतीय जनसंचार संस्थान


Tuesday 30 July 2013

हवा की नाराजगी  

हैरान हू,
कि,
आज हवा भी मुझसे नाराज है,
पेरशान हूँ
कि,
जमीन मेरे भावनओं पर टिकी है,
बसंत के मौसम में,
मुरझाया हुआ सा हूँ,
कला साहित्य से प्रेम होने पर भी,
सिर्फ ,
चंद किताबों को टटोलता रहा,
सोचने के तरीकों में,
अनायास परिवर्तन आ गया,
रास्ते में खड़े होकर,
बार बार,
वक़्त की प्रतीक्षा करता,
बादलों की गर्जना से,
विचलित हो उठता,
इस भोर में,
रात की चुप्पी को तोड़ने की कोशिश करता,
सुबह की सादगी में,
दोपहर की हैवानियत को छिपाने की इच्छा करता,
बिन मतलब लोगों से बातें करने में,
संकोच करता,
लिखने की तम्मना तो है,
लेकिन,
टिप्पणी करना आदत नही रही,
पास होकर भी,
दूसरों से खुद को दूर पाता,
हाँ नाँ की,
फ़िराक में ,
हालत अधर में लटक गए,
मगर,
अगले ही पल,
फिर सोचता हूँ
आज हवा मुझसे नाराज क्यों है ,


रवि कुमार छवि

Saturday 20 July 2013



शाहदरा से कश्मीरी गेट

शाहदरा मेट्रो स्टेशन आज थोड़ा उदास सा लग रहा था।  साधारण सुरक्षा चैकिंग से गुजरने के बाद आगे बढ़ा।
जहां से मेट्रो कार्ड को रिचार्ज कराया और अपने पर्स में रखते हुए भीड़ से बच गया। मेट्रो की निकासी मशीन थोड़ी खराब हालत में थी.. कुछ ही पलों में लोगों का जमावड़ा सा लग गया। पर्स को प्रवेश गेट से सटाकार अंदर दाखिल हुआ  ऊपर लगी घड़ी बता रही थी कि किस समय कौन सी ट्रेन हैं. खैर, जल्दी होने के कारण तेजी से मेट्रो की ओर दौड़ा। इस बीच अपने बैग को भी संभालाता हुआ भागा और जब लगा कि इस स्थिति से मेट्रो नहीं छूटेगी तब जाकर रुमाल को जेब से निकाला और आ रहे उस पसीने को पोछा जो आटो में बिल्कुल सिमट कर बैठी लड़की के स्पर्श से था। रूमाल में से उसकी देह की भीनी खुशबू महक रही थी। स्टेशन पर लगे बड़े बड़े बोर्ड किसी आने वाली फिल्म या किसी मोबाइल कंपनियो का बखान कर रहे थे.. कुछ लोग विज्ञापनों के शीशों को देखकर अपनी बालों को सवांर रहे थे। पहले कोच वाले स्थान पर नीचे फर्श पर लिखा था. केवल महिलाएं लेकिन वहां महिलाएं सिर्फ नाम मात्र को ही थी.. हर बार की तरह पुरूष वहां भी अपना हक जमाने के लिए तैयार थे। 
मेट्रो स्टेशन में पीली लाइन लोगों के जूतों से काली पड़ चुकी थी। हवा में कुछ नमी थी। मेट्रो का इंतजार करते करते लोगों के कपड़े पसीने से आर-पास की तैयारी में थे. एक ओर दिलशान गार्डन की मेट्रो लाइन में लोग चढ़ने को तैयार थे.. वहां कोई धक्का मुक्की नहीं थी। तो दूसरी ओर रिठाला लाइन की मेट्रो में लोगों की भीड़ जुटने लगी। स्टेशन के खुली जगह से शाहदरा की लोकल ट्रेन की आवाज अखबार पढ़ने से दूर कर रही थी.. पीले रंग में पुते हुए बोर्ड पर तीन भाषाओं में लिखा हुआ शाहदरा जंक्शन स्टेशन की अहमियत को बयां कर रहा था.. प्लेटफार्म पर खड़ी हुई लोकल ट्रेन रह रह कर अपने शहर कोलकाता की यादें ताजा करा रही थी..
वहीं सबसे आगे वाले कोच में खूबसूरत लड़कियों के दर्शन हो रहे थे तो कुछ अपने कम कपड़ों का प्रदर्शन कर रही थी। जिन्हें देखकर फिर से मन में सकुंचित यौवन इच्छाएं व्यापक होने लगी। उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था कि मानों लेक्मे फैशन वीक चल रहा हो।
बीच बीच में मेट्रो में होने वाली घोषणाएं यात्रियों को खुद से बोर होने से बचा रही थी। चार कोच वाली ट्रेन बेहद धीमी गति से यात्रियों के सामने आ खड़ी हुई थी मानों आज के जमाने की तकनीक का बखान कर रही थी. मैं, बिना किसी से धक्का मुक्की किए बिना मेट्रो के अंदर चढ़ गया.. सहसा एक झटके से मेट्रो अपने गंतव्य की ओर चल दी.। अपने देश में तो मेट्रो सबसे पहले कोलकाता में आई थी. जिसे आए हुए भी बमुश्किल 30 साल भी नहीं हुए थे... विदेशों मे तो मेट्रो को एक लंबा अरसा गुजर चुका था। जहां शानदार लोकेशन आपका इंतजार करती हैं। लेकिन दिल्ली की मेट्रो का अपना अंदाज हैं। इस बीच ना जाने कब ट्रेन शाहदरा से वेलकम आ गई पता हीं नहीं चला। वेलकम सुनते ही 2007 की सुपर हिट फिल्म वेलकम याद आ गई।   

वेलकम से ट्रेन अपने अगले पड़ाव की ओर चल दी उसका अगला स्टेशन था.. सीलमपुर जो दिल्ली में एक अनोखे अंदाज के लिए जाना जाता हैं.. मेट्रो की बाहर की लोकेशन में सुंदर पर्वत नदियों की बजाय ताश खेलते लोग, कूड़ा बीनते बच्चे , पटरी पर बैठा एक छोटा लड़का शौच करते हुए लोग और मेट्रो से रेस लगाती दिल्ली की लोकल ट्रेन इन्हें देख कर बस मन में एक सवाल आता हैं कि यहां विधया बालन का शौच वाला विज्ञापन कितना प्रासंगिक हैं..  और मेट्रो धीरे से सीलमपुर स्टेशन की ओर बढ़ती हैं.। इन सबके बीच बाएं हाथ की ओर खुला सीलमपुर मेट्रो का दरवाजा। यहां से कुछ लोग इस अंदाज में चढ़े कि देखते ही लग गया कि आखिर क्यों ये दिल्ली का खास इलाका माना जाता हैं....
अब अगला पड़ाव था शास्त्री पार्क यहां से मेट्रो की गाति थोड़ी तेज हो गई थी.। दिल्ली की यमुना को देख कर ऐसा लग रहा था कि जैसे ना जाने कितने लोग इसके अपमान के लिए जिम्मेदार हैं... लेकिन ये अभी भी चुप
हैं.. स्थिर हैं. और धैर्य से आगे की ओर चल रही हैं।  इस बीच कश्मीरी गेट पर उतरने वाले लोग अपनी –अपनी सीट से उतरने लग रहे थे.. कुछ उम्रदराज लोग अपने लिए बनाई गई सीट पर बैठने के लिए उतवाले दिख रहे थे... मेट्रो धीरे – धीरे यमुना को पार कर चुकी थी.. जैसे लगा कुछ छुट गया हैं... कुछ ही पलों में मेट्रो कश्मीरी गेट पर शाही अंदाज में रूकती हैं... लोग खुद ब खुद रास्ता छोड़ने के लिए तैयार नहीं होते बल्कि मेट्रो से बाहर निकलने वाले लोगों द्वारा धक्का देकर सामने से हटाया जाता हैं. सामने बड़े बोर्ड पर लिखा हुआ हैं कश्मीरी गेट।  दोपहर के करीब 2 बजकर 15 मिनट हुए थे ।  




 रवि कुमार छवि 

(पूर्व छात्र , भारतीय  जनसंचार संस्थान) 

Thursday 11 July 2013



शिखा और मुन्ना



कढ़ाई में तेल डालते ही तेल का रंग कुछ बदल सा जाता हैं. दो बड़े- बड़े कमरों के बीच में रसोई थोड़ी उदास सी लग रही थी।  मिर्च. हल्दी नमक.गरम मसाला और कूटा हुआ लहसन अदरक अपनी अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। रसोई की खिड़की के पास मकड़ी अपना जाल बुनने में मशगूल थी. शिखा सब्जी की चिंता छोड़ मकड़ी की मनोहर चित्रकारी को देख रही थी।  बाहर आंगन  में कुछ बच्चों के खेलने कूदने की आवाजें आ रही थी।  फर्श के एक कोने में रखा पोछा इस अंदाज में पड़ा हुआ था कि घर के लोगों को उससे कोई संबंध ना हो। शिखा बहुत व्यस्त नजर आ रही थी.

थोड़ी धूप खिली हुई थी.... शिखा थोड़ा काम निपटाने के बाद आराम करने की सोच ही रही थी कि इतने में आवाज आई कमबख्त.कहां चली गई ओ हो मारे दर्द के सिर फटने को हो रहा हैं..... आई मां जी शिखा तेज आवाज लगाकर दौड़ती हुई आई.. और अपनी सास को लेटाकर खाट के बराबर में उनका सिर दबाने लगी..... खाने में क्या बनाया हैं आज. शिखा की सास गले को रूघंते हुए बोली .... दाल और रोटी अपने घूंघट को ठीक करते हुए शिखा बोली.. कम से कम आज जो खीर बना लेती. क्यों सुरेश पैसे देकर नहीं गया क्या शिखा कुछ नहीं बोली जैसे कोई सांप सूंघ गया हो.. शिखा की सास एक करवट बदलकर आराम फरमाने में मशगूल हो गई.. शिखा उठी और गंदे कपड़ों को इकट्ठा करके ऊपर छत की ओर चली दी.... आज हवा में नमी थी इसलिए शिखा के हाथों में पसीने का अंश दिख रहा था... मन रह रह कर ना जाने किस  बात पर चिंतित था.।  पास में रखी थपकी, कपड़े धोने का, साबुन मग और बाल्टी में रखा गंदे हो चुके पानी वाला सर्फ इसी के इर्द-गिर्द शिखा अपने शब्दों को एक नई दिशा देने की कोशिश कर रही थी....... थपकी को जोर- जोर से मारने से छत पर गढ्ढे के निशान बन गए.... कपड़ों का पानी निचोड़ने के बाद शिखा एक-एक फटकारकर उन कपड़ों को सुखा रही थी.. मुन्ने के छोटे-छोटे कपड़ों को क्लिप के सहारे रस्सी से लटका दिया..हवा के सहारे कपड़े अपनी मनमौजी अंदाज में झूल रहे थे उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था कि मानों वो सावन आने का इस्तकबाल कर रहे हो.......

शिखा ने जैसे ही अंगड़ाई को तोड़ा मानों उसका रोम रोम खिल उठा और सूखे हुए होठों पर एक फीकी हंसी सी आ गई..... कपड़े धोने के कारण हाथों की रेखाएं कुछ शर्मा सी गई थी..शिखा की छत के सामने कोई गंवार टाइप का लड़का आता हैं और उस पर अपना हक जमाने के लिए बेकार सी आवाज में गाना गा कर उसकी ओर घूरता हैं.. लेकिन वो उसकी तरफ बिल्कुल भी नहीं देखती और सीढ़ी से उतर कर नीचे की ओर चली जाती हैं. अपने जूड़े को ठीक करते हुए जैसे ही सोने के लिए तकिए को अपनी ओर खीचंती हैं कि जोर जोर से रोने की आवाजें आने लगती हैं. मुन्ना उठ गया हैं शिखा अपनी साड़ी को ठीक करते  मुन्ने की ओर करवट बदलती हैं मुन्ने को अपने सीने से लगाकर अपना दुध पिलाने लगती हैं..  .. कुछ ही देर बाद मुन्ने ने फिर से आंखे बंद कर ली जिससे कि उसकी मां आराम कर सके..... शिखा अब अपनी नींद को एक किसी सरकारी काम की तरह ठंडे बस्ते में डाल कर  काम में लग जाती हैं..  सूरज डूबने की ओर था.. शिखा की सास दोपहर की थकान को भूलकर होने वाली शाम को नमन करते हुए भैंस के चारे का इंतजाम करने के लिए तैयार हो रही थी............. भैंस आराम से अपनी पूंछ को उठाते हुए गोबर को साफ करने में लग हुई थी... इस बीच वो बराबूर जुगाली कर रही थी... झाडूं, सिल बाट के बिल्कुल नजदीक पड़ी हुआ थी.। शिखा ओ शिखा कहां मर गई... देख तेरा लल्ला उठ गया, मैं, आटा पिसवाने जा रही हूं.. बर्तन पड़े हुए हैं अच्छी तरह मांज दियो  शिखा की सास दरवाजे को भिड़काते हुए बोली...शिखा सब काम छोड़ते हुए मुन्ने को संभालने लगी.।  घड़ी ने ना जाने कब 6 बजा दिए मालूम ही नहीं पड़ा... मुन्ना आराम से दूध की बोतल के साथ सो गया। . पंखा अपनी तेजी के मताबिक नहीं चल रहा था।  हां, इतना था कि मक्खी उसके आस-पास भी नहीं थी.। 
शाम अपनी अंगड़ाईयों के साथ सोने को तैयार थी ..... मानो रात का स्वागत करने को तैयार हो खाट के सिराहने मुन्ना बिना कपड़े पहने खाली कटोरी के साथ खेल रहा था... शिखा कपड़ों को रस्सी से उतारकर खाट पर कुछ इस अंदाज में रख थी जैसे इनसे कोई वास्ता न हो........... क्लिप के सहारे लगे कुछ कपड़े अभी भी धीरे से चल रही हवा के झोके के साथ मुस्कराने पर आमदा थे... रात अपने पैर पसार चुका था.. घर के बाहर सन्नाटा पसरा हुआ था....  शिखा की सास हुक्के को इस उम्मीद में सुलगा रही थी कि जैसे तैसे एक दो कश लगा सके... मुन्ना अचानक रोने लगा.. शिखा चूल्हे की राख को चिमटे के सहारे थोड़ा अंदर करके दौड़ी हुई आई,..... ना जाने क्या हो गया इसे सुबह से रोए जा रहा हैं.... इसका बाप भी अभी तक नहीं आया हुक्के के धुएं को आंगन में छोड़ती हुई शिखा की सास बोली. शिखा ने दूध की बोतल को मुन्ने के मुंह पर लगा दिया कितनी बार बोला हैं इस कलमुंही को कि अपना दूध पिला लेकिन मेरी कौन सुनता हैं आ गए हैं शहर से दो चार क्लास पढ़कर मुंह को बनाते हुए शिखा की सास बोली.. मां जी, मुझे थोड़ी कमजोरी महसूस हो रही हैं इसलिए मुन्ने को अपना दूध नहीं पिला सकती.. जबान तो देखो कैसे लबालब चलती हैं. चल घर में जा और मेरे लिए थोड़ा दूध गरम कर ला जी मां जी, अपने घूंघट को ठीक करते हुए शिखा बोली.  ऐसे लगा जैसे आज के जमाने में हिटलर आ गया हो..... शिखा की सास एक हल्की सी चादर को समटने लगी...आंगन के बाहर कोई उपले जला रहा था... सामने  वाले घर में लालटेन अपनी जिंदगी की अंतिम सांसे चल रही थी... शिखा की सास पंखे से हवा कर रही थी जो इस सिर्फ नाम की ही थी.. ..... जमीन पर खाट के पास रखा पानी का गिलास और साथ में रखी दवाई गुमसुम सी थी...... शिखा अभी अभी बर्तन साफ करके उठी थी.. घास काटने की मशीन के ऊपर रखी डिबिया मानों रात की खामोशी को समेटने की तैयारी में थी...मुन्ने को अपने वक्ष पर लिटाकर दिन भर की थकान को बिस्तर पर ओढने वाली ही थी कि .. कि दरवाजे पर आहट होती हैं.... खट खट शिखा मुन्ने को तकिए के सहारे लगा कर दरवाजे की ओर भागती हैं कुंडी को खोलते ही एक तेज आवाज आती हैं अब तक कहां थी साली तेरी मां की ...........  वो वो मैं . मुन्ने को सुला रही थी थोड़ा हकलाते हुए बोली ..  मुन्ने को सुला रही थी या अपने आशिक से बात कर रही थी... सुरेश लड़खड़ाते लड़खड़ते बोला आपने शराब पी हैं, क्या तू कौन होती हैं पूछने वाली  चल जा मेरे लिए कुछ खाने को ला बहुत भूख लगी हैं........ जी लाई ... खाना देखने  ही राजीव बोला अबे ये क्य़ा बनाया हैं जा जाकर अपनी मां को खिला ये दाल..... जी जी वो आपने पैसे नहीं दिए थे... तो घर में कुछ था नहीं तो मैंने दाल बना ली...... साली जुबान लड़ाती हैं.......... एक थप्पड़ शिखा के नाजुक गालों पर पड़ता हैं और आने वाले आंसू साड़ी के पल्लू में कही खो से जाते हैं...औऱ सासें कुछ धीमी पड़ जाती हैं............. सुरेश दारू पीकर सो जाता हैं। कुत्ते लगातार भौंक रहे हैं, डिबिया की लौ अब बुझ गई हैं। शिखा रोटी का एक टुकड़ा  खाने की कोशिश करती हैं लेकिन अपनी किस्मत के बारे में सोच कर ठहर जाती हैं., उधर मुन्ना उठ जाता हैं खाने को नहीं होने पर उसे उठाकर अपना दूध पिलाने लगती हैं। शिखा एक हाथ से पंखा और एक हाथ से मुन्ने को प्यार से थपकी देती रही.। इस दरम्यान ना जाने कब सुबह हो जाती हैं शिखा को मालूम नहीं होता.. और शिखा आधा घूघंट करके भैंसों की सानी करने लग जाती हैं. शिखा की सास हुक्के के सहारे कश लगा रही हैं।  शिखा का पति बड़े ही बेढंगे तरीके से सो रहा हैं....... मुंह पर लगातर मक्खी लग रही हैं... बाल ऐसे कि मानों सालों से ना नहाया हो बीड़ी पी पीकर अपने होंठ भी काले कर दिए। शिखा अपनी किताबें हिफाजत से रख रही हैं। शिखा का कल बीए का इम्तिहान हैं..

रवि कुमार छवि
भारतीय जनसंचार संस्थान
(नई दिल्ली पूर्व छात्र )